बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- इण्डो इस्लामिक वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने के रूप में ताजमहल की कारीगरी का वर्णन दीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. ताजमहल का मकबरा किस शैली में बना हुआ है?
2. मकबरे के बड़े कक्ष में क्या है?
उत्तर -
ताजमहल में मध्यकालीन भारत की विकासात्मक वास्तु प्रक्रिया अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई। इसके संरचनात्मक और अलंकरणात्मक, दोनों ही प्रकार के तत्वों में मुगलों द्वारा हिन्दुस्तान लाए गए व यहाँ पहले से उपस्थित तथा शाहजहाँ व उसके वास्तुकारों द्वारा ताज के लिए परिकल्पित, सभी प्रकार के प्रभावों का संगम दिखाई देता है।
ताजमहल की भव्यता व शालीनता, उसकी आंडबरहीन तथा सरल योजना व उठान, उसके विभिन्न अंगों के बीच समानुपात एवं सुडौलता, संगमरमर के प्रयोग, यमुना नदी के किनारे उसकी स्थिति और ऊँचे आकाश में खड़ी उसकी भव्य इमारतों के कारण आती है। ताज की गरिमा दिन और रात के अलग-अलग समयों पर अलग-अलग रंगों का आभास कराती है।
ताजमहल को शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज महल की याद में एक मकबरे के तौर पर बनवाया था। इसके सम्पूर्ण परिसर में अनेक छोटे-बड़े भवन, कक्ष, बाग-बगीचें हैं। यह यमुना नदी के दाहिने किनारे पर स्थित है। अनुसंधानकर्ता ने पता लगाया है कि ताज के पीछे यमुना के बाएँ किनारे पर भी पहले कभी एक बाग था। जिसे माहताब बाग कहा जाता था।
ताज के विशाल परिसर में प्रवेश पाने के लिए लाल पत्थर से बने एक विशाल चबूतरे से होकर जाना पड़ता है। इसकी मीनारे चारबाग शैली में बनी है। जिसमें फव्वारे और पानी के बीच से रास्ता है। मकबरे की इमारत को बाग के बीचोबीच न बनाकर उत्तर किनारे पर बनाया गया है ताकि नदी तट की सुन्दरता का लाभ उठाया जा सके।
बाग के बीचोबीच स्थित सीधा मार्ग आगतुंक को मकबरे के निचले हिस्से तक पहुँचा देता है। वहीं से मकबरे के फर्शी चबूतरे पर पहुँचा जाता है। चबूतरे के किनारों पर चार मीनारें खड़ी हैं जो ऊपर की ओर पतली होती जाती हैं। इन मीनारों की ऊँचाई 132 फुट है। इमारत के मुख्य भाग की चोटी पर गोलाकार गुम्बद है और चार गुमटियाँ हैं जो सुन्दर नम रेखा बनाती हैं। इमारत की कुर्सी, उसकी दीवारें और गुम्बद तथा गुमटियों के बीच पूर्ण समानुपात है। सफेद संगमरमर जड़ी कब्रगाहों के पश्चिम की ओर एक लाल बलुआ पत्थर से बनी मस्जिद
है और सन्तुलन बनाए रखने के लिए पूर्व में एक भी ऐसी ही इमारत बनी हुई है। इमारत के लिए संगमरमर राजस्थान में स्थित मकराना की खानों से खोदकर लाया गया था और मकबरे का यह सफेद संगमरमरी भवन आस-पास लाल बलुआ पत्थर से बनी हुई इमारतों से बिल्कुल विपरीत दृश्य प्रस्तुत करता है।
मकबरे की इमारत वर्गाकार है और इसके खांचे आठ किनारे बनाते हैं। उनके बीच गहरी चापें हैं। ये संरचनात्मक विशेषताएँ सम्पूर्ण इमारत के उठाव में भिन्न-भिन्न सतहों, छायाओं, रंगों आदि का आभास उत्पन्न करती हैं। इमारत की ऊँचाई फर्श से छत तक 186 फुट और छत से शिखर के फ़गूरों तक भी 186 फुट है।
मकबरे के भीतरी भाग में नीचे तलघर और उस पर मेहरबदार अष्टभुजी विशाल कक्ष हैं और प्रत्येक कोण पर कमरा बना है और ये सब गलियारों से जुड़े हैं। इमारत के हर हिस्से में रोशनी जाली -झरोखों से आती है जो भीतरी मेहराबों के आस-पास बने हुए हैं। छत की ऊँचाई बाहरी दरवाजें जितनी ही है और दो गुम्बदों के कारण बीच में जगह छूटी हुई है। ताजमहल की सुन्दरता में वृद्धि करने के लिए उसकी भीतरी और बाहरी सतहों पर चार तरह के अलंकरणों या साज-सज्जाओं का प्रयोग किया गया है। इसकी दीवारों पर पत्थर को उकेरकर ऊँची और नीची उभारदार नक्काशी की गई है। जाली - झरोखों में जड़े संगमरमर में बारीक या सुकोमल नक्काशी की हुई है। दीवारों और मकबरे के पत्थरों पर पीले संगमरमर, जेड और जैस्पर की जड़ाई का काम किया हुआ है और साथ ही कहीं-कहीं चोपड़ पच्चीकारी के साथ जयामितीय डिजाइनें बनी हुई हैं। अंत में, सफेद संगमरमर पर जैस्पर की जड़ाई के द्वारा कुरान की आयतें लिखी गई हैं। इस सुन्दर लिखावट से दीवारों की सुन्दरता में चार चांद लग गए हैं और अल्लाहताला से सतत् सम्बन्ध जुड़ गया है।
गोल गुम्बद कर्नाटक के बीजापुर जिले में स्थित है। यह गुम्बद बीजापुर के आदिलशाही राजवंश (1489-1686 ई० ) के सातवें सुल्तान मुहम्मद आदिलशाह (1626 - 56 ई० ) का मकबरा है। इसे स्वयं सुल्तान ने अपने जीवन काल में बनवाना शुरू किया था। इसका काम पूरा होने के बावजूद यह एक शानदार इमारत है। मकबरे में कई छोटी-बड़ी इमारतें हैं, जैसे- भीतर आने के लिए विशाल दरवाजा, एक नक्कारखाना, एक मस्जिद और एक सराय जो दीवारों से घिरें एक बड़े बाग के भीतर स्थित हैं।
गुम्बद एक विशाल वर्गाकार भवन है जिस पर एक गोलाकार ढोल है और ढोल पर एक शानदार गुम्बद टिका हुआ है। जिसके कारण उसे यह नाम दिया गया है। यह गहरे स्लेटी रंग के बेसाल्ट पत्थर से बना है और इसे पलस्तर से संवारा गया है। गुम्बद की इमारत की हर दीवार 135 फुट लम्बी, 110 फुट ऊँची और 10 फुट मोटी है। ढोल और गुम्बद दोनों को मिलाकर इस इमारत की ऊँचाई 200 फुट से भी ऊँची चली जाती है। मकबरे का एक वर्गाकार बड़ा कक्ष है ओर 125 फुट व्यास वाला गुम्बद है। यह मकबरा 18,337 वर्ग फुट फैला हुआ है और दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मकबरा है।
मकबरे के बड़े कक्ष में सुल्तान, उसकी बेगमों व रिश्तेदारों की कब्रगाह हैं और उनकी असली कब्रें नीचे तहखाने में हैं। तहखाने में उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं। वर्गाकार आधार - पर बना अर्धगोलाकार गुम्बद बगली डाट के सहारे बनाया गया था। इन बगली डाटों ने गुम्बद को तो आकार दिया ही, साथ ही उसके भार को नीचे की दीवारों पर डाल दिया। बगली डाटों में चाप-जालियों (आर्चनेंट्स) या तारकाकार रूपों वाली प्रणालियाँ बनी हुई हैं जिनसे प्रतिच्छेदी चापों द्वारा बने कोण ढक जाते हैं।
इस इमारत में एक आश्चर्यजनक ध्वनि-प्रणाली है। गुम्बद के ढोल के साथ-साथ एक फुसफुसाहट दीर्घा (व्हिस्परिंग गैलरी) बनी हुई है जहाँ धीरे से धीरे से बोली गई या फुसफुसाई गई आवाज कई गुना तेज हो जाती है और उसकी प्रतिध्वनि कई बार गूंजती है। T
इमारत के चारों कोनों पर सात मंजिली अष्ट भुजाकार मीनारें बनी हैं। ये मीनारें ऊपर गुम्बद तक पहुँचने के लिए सीढ़ियों का काम भी देती है। गुम्बद का ढोल बेलबूटों से सजा हुआ है। इमारत के मुहार (मुख भाग) की विशिष्टता यह है कि परकोटे के नीचे भारी ब्रैकेटों वाली कार्निस बनी हुई है। यह कार्निस अत्यन्त उत्कीर्णित पत्थर के टोड़ों पर टिकी हुई है जो दीवार से आगे 10 फुट तक निकले हुए हैं। कार्निस मुंडेर को सहारा देती है जिसमें अनेक चापदार झरोखे और पत्ती की शक्ल वाली दीवारें हैं।
गोल गुम्बद मध्य कालीन भारत में प्रचलित अनेक वास्तु शैलियों का सुन्दर संगम है। स्मारकीयता, विशालता व भव्यता, सब बीजापुर के इन भवनों में पाई जाती हैं। इसके गुम्बद, मेहराबों, ज्यामितीय अनुपातों व भारवाही तकनीकों जैसी संरचनात्मक विशेषताओं से ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें तिमूरी व फारसी शैलियों को अपनाया गया है। लेकिन इसके निर्माण में स्थानीय सामग्री लगी है और यह दक्कन में लोकप्रिय फर्श सजावटों से सजा है। किनारों पर बनी चार मीनारें उन बुर्जों के अवशेष हैं जो मस्जिदों के साथ लगी हुई थीं, जैसा दिल्ली के पुराने किले की किला - इ - कुहना मस्जिद में दिखता है।
जामा मस्जिद
मध्य कालीन भारत में स्थान-स्थान पर अनेक बड़ी-बड़ी मस्जिदें बनाई गईं जहाँ नमाज़ आदि के लिए विशाल आँगन थे। यहाँ हर जुम्मे (शुक्रवार) को दोपहर बाद नामज पढ़ने के लिए नमाज़ियों की भीड़ जमा होती थी ऐसी सामूहिक नमाज़ के लिए कम से कम 40 मुस्लिम वयस्क पुरुषों का इकट्ठा होना जरूरी था। शुक्रवार को नमाज़ के समय शासक के नाम में एक खुतबा को पढ़ा जाता था और आम प्रजा के लिए बनाए गए उसके कानूनों को पढ़कर सुनाया जाता था। मध्य काल में, एक शहर में एक जामा मस्जिद होती थी जो अपने नज़दीकी परिवेशे के साथ-साथ आम लोगों यानी मुस्लिम और गैर-मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के लोगों के लिए जीवन का केन्द्र-बिन्दु थी। इसका कारण यह था कि यहाँ धार्मिक और अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक गतिविधियों के साथ-साथ वाणिज्यिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी बहुत होता था। आमतौर पर ऐसी मस्जिद काफी बड़ी होती थी, उसमें एक खुला भाग होता था जो तीन तरफ से ढके हुए रास्तों (इबादत घरों) से घिरा हुआ होता था और उसमें पश्चिम की ओर क़िबला लिवान होता था यहीं पर इमाम के लिए मेहराब और मिम्बर बने होते थे। नमाज़ी अपनी इबादत (प्रार्थना) पेश करते समय मेहराब की ओर ही अपना मुँह रखते थे क्योंकि यह मक्का में काबा की दिशा में होती थी।
जामा मस्जिद का नक्शा
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